पहले मांझी, अब राजभर... 2024 से पहले दलित-OBC वोटबैंक साध पाएगी BJP?
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साल 2024 में होने वाले आम चुनावों से पहले बीजेपी का चुनावी अभियान जारी है. इसी बीच उत्तर प्रदेश और बिहार में राजनीतिक समीकरण बदलने लगे हैं. नेताओं का एक पार्टी छोड़कर, दूसरी में आवाजाही जारी है. इससे जहां पहले बीजेपी कमजोर साबित हो रही थी, वहां उसे बढ़त मिल सकती है.
2024 के आम चुनावों की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, भारतीय राजनीति में पार्टियों के समीकरणों में भी तेजी से बदलाव हो रहे हैं. राजनीतिक दलों में आवाजाही का क्रम जारी है और इसी आधार पर ये तस्वीर भी साफ होती दिख रही है कि जातीय समीकरण के आधार पर कौन सा दल समाज के किस हिस्से को और कितना साध पा रहा है.
पिछड़ी जातियों के बीच पैठ की कोशिश हाल ही में, ओम प्रकाश राजभर जो कि ओबीसी नेताओं में बड़ा चेहरा रखते हैं, वह शनिवार को एनडीए में शामिल हो गए. राजभर की ओर से ठीक 2024 से पहले उठाया गया यह वो महत्वपूर्ण कदम है जो लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी के चुनावी अभियान को और मजबूत करने की दिशा में काम करेगा. सत्तारूढ़ पार्टी के खेमे में राजभर का जाना, हिंदी पट्टी में पिछड़ी जातियों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने की बीजेपी की सशक्त कोशिश को दिखाती है. वह भी ऐसे माहौल में जब लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष ने ओबीसी जनगणना समेत कई मुद्दों को उठा रखा है.
अपनी कमजोरी पर काम कर रही है सत्तारूढ़ बीजेपी केंद्र सरकार ने अब तक अन्य पिछड़ा वर्ग की जनगणना की मांग पर चुप्पी साध रखी है. जो सबसे बड़ा मतदान समूह है. इस वर्ग की ओर से 2014 के बाद से मतदान केंद्रों पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए बढ़ती प्राथमिकता दिखाई गई है. छोटे दलों को रिप्रेजेंट करने वाले और ज्यादातर एक विशेष पिछड़ी या दलित जाति से जुड़े कई नेता हाल के महीनों में, भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में चले गए हैं और उन्होंने विपक्ष का साथ छोड़ दिया है. क्योंकि इस दौर में सत्ताधारी धल ने अपना वो पक्ष मजबूत करना शुरू कर दिया है, जहां वह कभी-कभी कमजोर दिखाई देती रही है.
बीजेपी को मिला है इन नेताओं का साथ 2014 से भाजपा का गढ़ बने उत्तर प्रदेश में राजभर, संजय निषाद जैसे ओबीसी नेता एनडीए में शामिल हो चुके हैं. इन दोनों नेताओं का निषादों-केवटों और मछुआरों के बीच प्रभाव है. वहीं अपना दल (सोनीलाल) की केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल को पिछड़े कुर्मियों का समर्थन प्राप्त है. जहां निषाद ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अपनी 'निषाद' पार्टी का भाजपा के , साथ गठबंधन किया था, वहीं पटेल 2014 से ही भाजपा की सहयोगी रही हैं.
बिहार में भी पिछड़ों को साधने की कोशिश बात करें, पड़ोसी राज्य बिहार की तो वहां, कुशवाह नेता उपेन्द्र कुशवाह और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने राजद-जद(यू)-कांग्रेस-वाम गठबंधन (महागठबंधन) को छोड़ दिया है. मांझी अपने दलित समुदाय के बड़े नेता हैं. मांझी पहले ही एनडीए में शामिल हो चुके हैं जबकि कुशवाहा भी बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के साथ कई बैठकें कर चुके हैं. दूसरी ओर भाजपा चिराग पासवान की भी अपने खेमे में वापसी की कोशिश में जुटी है, जिनकी लोक जनशक्ति पार्टी (आर) को बिहार में दलित समुदाय, पासवानों का बड़ा समर्थन प्राप्त है.
2014 के बाद से यूपी में ताकतवर बन कर उभरी थी बीजेपी पीएम मोदी के नेतृत्व में 2014 में पहली बार लोकसभा में बहुमत हासिल करने के बाद से भाजपा यूपी में एक बेहद प्रभावशाली राजनीतिक ताकत बन कर उभरी थी, तो वहीं, समाजवादी पार्टी ने 2022 की विधानसभा चुनाव में राजभर और अपना दल के राइवल समूह के साथ मिलकर 'पूर्वांचल' क्षेत्र में इसे बड़ा नुकसान पहुंचाया था. दारा सिंह चौहान सहित भाजपा के कुछ ओबीसी नेता गैर-यादव पिछड़ों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए सपा में शामिल हो गए थे और अब चौहान का विधायक पद छोड़ना और संभवत: अपनी पहले वाली पार्टी में लौटने के फैसले की उनकी संभावना ने मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में विपक्ष को एक और हानि पहुंचाई है.
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