
पन्ना से Ground Report: हीरे के चाह में जिंदगी तबाह...पीढ़ियां खपीं, किस्मत रूठी मगर मजदूरों की उम्मीद नहीं टूटी
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पन्ना के हीरों को हाल में जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI) टैग मिला. अब घर से लेकर सरहद पार तक उसकी पूछ-परख और बढ़ेगी. लेकिन हीरा खदानों में काम करते मजदूर वहीं अटके रहेंगे. कुदाल-फावड़े चलाते, हाथ-पांव जख्मी करते, पत्थरों के पहाड़ में हीरे की कनी खोजते और मिलने पर धड़धड़ाती छाती से उसे खदान मालिक के हवाले करते हुए!
खुदाई-मचाई-छंटाई! कई-कई दिन और कई-कई साल तक ये काम चलता है, तब जाकर हीरा मिलता है. किस्मत हो तो पहली कुदाल जमीन पर पड़ते ही फट से चकाचौंध कर देगा. रूठा हो तो पीढ़ियां खप जाएं, छिपा ही रहेगा. 'आपको क्या कभी हीरा मिला?'
हां…मिला क्यों नहीं. इतनी बार मिला कि गिनती छोड़ दी. मैं मजदूर थी. ठेकेदार के हाथ में हीरा देती तो सीना धड़-धड़ करता. आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. फिर आदत हो गई. चाहे करोड़ों का हीरा मिले, हमारे लिए उसका मोल शाम के चूल्हे जितना है. पन्ना! मध्य भारत का ये जिला हीरों की खदान के लिए मशहूर रहा. वहां के राजा छत्रसाल को वरदान था कि उनके घोड़े के पांव जहां-जहां पड़ेंगे, वहां-वहां धरती के भीतर हीरा जी उठेगा. पन्ना के बाशिंदों के पास इसपर लंबी-छोटी ढेरों कहानियां हैं. शहर के भीतर घुसते ही ये कहानियां जिंदा हो जाती हैं. खदानों में, चाय की दुकानों में...और सुबह फावड़े-तसलियां लेकर जाते और देर दोपहर टूटी झोपड़ियों में लौटते मजदूरों में. जंगलों और पहाड़ों से घिरे पन्ना और वहां के हीरों पर कितनी ही रिपोर्ट्स हो चुकीं. aajtak.in भी उन कहानियों को दोहरा रहा है. और दोहरा रहा है उस अंधेरे को, जो जुगर-जुगर करते इस पत्थर के भीतर चुपचाप सांस लेता है. मध्यप्रदेश के उत्तरी कोने पर बसे जिले में भीतर घुसते ही घने जंगल मिलेंगे. यहां लगभग साढ़े पांच सौ वर्ग किलोमीटर में फैला टाइगर रिजर्व है, जिसमें सफारी के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. इससे गुजरने के बाद पन्ना के खदानी इलाके शुरू हो जाएंगे. ये इलाका पारंपरिक तौर पर डायमंड माइनिंग के लिए ही जाना जाता है, जहां देश का अकेला हीरा कार्यालय भी है.
खनन क्षेत्र में शुरू से आखिर तक घूमते चलें तो कुछ चीजें कॉमन हैं. धूप और धूल से बनी खानों में धूसर रंगे लोग दनादन फावड़े चलाते हुए, प्यास लगने पर जीभ फेरकर मुंह तर करते हुए...और बिना सुस्ताए दोबारा हीरा तलाशते हुए. आज तक की टीम किस्त-किस्त में ऐसे कई चेहरों में मिली.हीरे की खोज में पीढ़ियां खाक करते हुए… हीरा पाकर भी उसके लिए तपते हुए… हीरे की आस में जीते हुए… और हीरे के ख्वाब में मिट्टी होते हुए…! मुख्यालय से NH 39 लेते हुए आगे जाने पर सात किलोमीटर दूर मनौर गांव पड़ेगा. सड़क से नीचे उतरते ही कच्ची-पक्की रोड. लगभग दो सौ घरों वाला ये गांव हमारा पहला पड़ाव था. शहर को छूता हुआ लेकिन शहराती छुअन से बचा हुआ. पन्ना की कहानियों में मनौर का नाम कुछ फुसफुसाते हुए ही लिया जाता है. क्यों? यहां विधवाएं ज्यादा बसती हैं. इसकी जड़ में भी खदानें ही हैं. पत्थर खदानें. जहां काम करते-करते पुरुषों के सीने पथराने लगे.
‘मुझमें सांस तो है लेकिन ले नहीं पाता…!’ पथराए फेफड़ों वाला ऐसा ही एक शख्स कहता है. उसकी कहानी बाद में. फिलहाल हम गेंदाबाई उर्फ फूल से मिलते हैं. दरमियानी उम्र की महिला के चेहरे से लेकर हाव-भाव में उनके नाजुक नाम की कहीं झलक तक नहीं. सारी मुलायमियत खानों में खप चुकी. बिना कैमरा वो सहेली की तरह बतियाती हैं, स्क्रीन दिखते ही कुछ सिमट जाती हैं.
12 साल की थी, जब हीरा बीनना शुरू किया. तब हफ्ते के 210 रुपये मिला करते. खदान कोड़ने के बाद उसे मचाने (पैरों की मदद से मिट्टी में से कंकड़ छांटना) का काम करते. मुझे अक्सर ही हीरा मिल जाता. कभी रेज (छोटे आकार का हीरा) तो कभी खूब भारी भी मिलता. मेहनत सारी हीरे के लिए ही थी, लेकिन जब मिलता तो दिल दुख से भर जाता था, बाई...
आंखों के आगे अंधेरा छा जाता. छाती जोरों से धकधक करती, जैसे फटने को हो. हीरा जब ठेकेदार या मालिक के हाथ में देते तो रुलाई आ जाती थी. फिर आदत पड़ गई. जी कसकना बंद हो गया.

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