
ना सियासी लकीर की चिंता, ना दोस्त-दुश्मन की फिक्र! पॉलिटिकल अखाड़े में मुलायम होने के मायने
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1970 में मुलायम सिंह के आदर्श चौधरी चरण सिंह थे, 1986 में चरण सिंह बीमार पड़े तो हेमवती नंदन बहुगुणा मुलायम के आका हो गए. 1887 में चरण सिंह के निधन के बाद पार्टी दो धड़ों में टूट गई. लोक दल (अजीत) और लोकदल (बहुगुणा). मुलायम लोकदल बहुगुणा यूपी के अध्यक्ष हो गए. देवीलाल के बुलावे पर उन्होंने बहुगुणा का साथ छोड़ दिया. 1989 में वह जनता दल के साथ थे.
मुलायम सिंह यादव एक छोटे से गांव सैफई में जन्मे, गरीबी विरासत में मिली, इलाके में दूर-दूर तक विकास की 'बूंदें' तक दिखाई नहीं देती थीं, न यातायात के साधन थे और ना ही स्कूल-अस्पताल. पिता पहलवानी कराना चाहते थे, बेटे ने पढ़ाई को चुना, लेकिन अखाड़ा नहीं छोड़ा. मिट्टी की महक को जीवन में रचा बसा लिया. अखाड़े के दांव-पेच को राजनीति में उतार दिया. बस चित करने की चाह पाली, चाहे उसके लिए कोई भी दांव चलना पड़े. बाहर से अक्खड़ लगते लेकिन अंदर से मुलायम, जिससे दोस्ती की, आजीवन निभाई. साथ के जो लोग बागी हो गए उनके खिलाफ कभी भी एक शब्द नहीं कहा चाहे वह अमर सिंह हों या आजम खान. कांशीराम-मायावती से हाथ मिलाया, साथ छोड़ा लेकिन मन में कटुता नहीं पाली.
स्कूल में एक दलित छात्र के लिए दबंगों से लड़ाई कर ली तो उन्हें 'दादा भैया' का नाम दिया गया. गांव के आसपास के लोगों ने उनका नाम 'धरतीपुत्र' रखा, बाद में यादव समुदाय ने इसे पक्का कर दिया. फिर मुलायम 'नेताजी' के नाम से जाने-जाने लगे, कारसेवकों पर गोली चलवाने के बाद विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहना शुरू कर दिया. लेकिन उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की. इरादे स्पष्ट, लक्ष्य साफ, साथ छोड़ने और पकड़ने में उन्होंने कभी कोताही नहीं बरती. ऐसे में उन्हें मतलबी भी कहा जाता था लेकिन उनका अपना कैलकुलेशन था.
समय के साथ चलना और आगे की सोचना मुलायम की फितरत थी. किसके साथ कितने दिन चलना है खुद तय करते. चमक खो चुके लोगों को बाय-बाय कहने में परहेज नहीं करते. लेकिन व्यक्तिगत दुश्मनी किसी से नहीं रखते. कुछ विश्वासपात्र लोग थे, जिनसे डिस्कस करते. उन्हें ध्यान से सुनते. फैसले खुद लेते और उसे लागू करवाने की कूबत रखते, पार्टी की बैठकों में कभी भी किसी का इंतजार नहीं करते. समय तय होता उसके पहले पहुंच जाते. तय वक्त पर बैठक शुरू हो जाती, बाद में आने वाले धीरे से शामिल हो जाते. हां आजम खान के इंतजार में उन्होंने एक दो बार बैठक शुरू होने का इंतजार किया.
पहली जीत से मिला 'नेताजी' बनने का सूत्र
खांटी समाजवादी नेता नत्थू सिंह की शागिर्दी में मुलायम ने जान लिया था कि अगर साथ में कुछ लोग खड़े होने वाले लोग हों तो बड़ी-बड़ी ताकतों से मुकाबला किया जा सकता है. एक दंगल में नत्थू सिंह ने उन्हें देखा था और मिलने का आमंत्रण देकर निकल गए थे. मुलायम उनसे मिले और उनका जीवन बदल गया. 15 अगस्त 1966 को लोहिया ने भारत बंद बुलाया, इसमें नत्थू सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया. फिर मुलायम सिंह ने मोर्चा खोल दिया. आंदोलन-धरना प्रदर्शन से ऐसा समा बांधा कि नत्थू सिंह की आंखों के तारे हो गए.
तमाम विरोधों के बावजूद 1967 के चुनाव में नत्थू सिंह ने राम मनोहर लोहिया से पैरवी कर मुलायम सिंह यादव को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से जसवंत नगर से विधायक का टिकट दिला दिया. सामने थे कांग्रेस के लाखन सिंह. नत्थू सिंह के बेटे दर्शन सिंह ने मुलायम का चुनावी प्रचार संभाला. साइकिल पर मुलायम को बैठाकर दर्शन ने साइकिल से गांव-गांव घूमकर प्रचार किया है. एक वोट और एक नोट मांगा. इस तरह 28 साल के नौजवान मुलायम ने लाखन सिंह को हरा दिया, इसके बाद तो मुलायम ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

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