फिल्म 'हाउसफुल', थिएटर खाली...! समझें-बॉक्स ऑफिस का 'ब्लॉकबस्टर' गणित
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बॉलीवुड इंडस्ट्री में रिलीज हुई फिल्मों के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं. एक्सपर्ट्स का मानना है कि इन दिनों चल रहे कट-थ्रोट कंपीटिशन ने कई प्रोड्यूसर्स और स्टूडियोज को अपने फेक कलेक्शन को प्रेजेंट करने पर मजबूर किया है .
जवान जब रिलीज होने वाली थी, तब शाहरुख खान लगातार सोशल मीडिया पर फिल्म की एडवांस बुकिंग का अपडेट दे रहे थे. इसी बीच एक फैन ने शाहरुख खान से ट्विटर पर सवाल कर डाला कि वो इस बात की क्लैरिटी दे दें कि एडवांस बुकिंग में से कितने टिकट्स ऑर्गेनिक हैं और कितने कारपोरेट बुकिंग के. शाहरुख तो इस तरह के सवाल पर समझाइश देकर आगे बढ़ गए लेकिन इससे बॉलीवुड फिल्मों के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की सत्यता पर सवाल खत्म नहीं हुए. सवाल ये भी उठा कि आखिर इंडस्ट्री के प्रोड्यूसर्स और मेकर्स द्वारा ट्रेंड में लाया गया 'कारपोरेट बुकिंग' का फंडा है क्या?
क्या है कॉरपोरेट बुकिंग आम भाषा में कॉरपोरेट बुकिंग का मतलब समझा जाए, तो अर्थ निकलता है किसी प्राइवेट कंपनी द्वारा अपने निजी कारणों की वजह से की जाने वाली बुकिंग. हालांकि इसे इंडस्ट्री के नजरिये से देखा जाए, तो यहां चीजें कई परतों में हैं. यहां कॉरपोरेट के अलावा ब्लॉक बुकिंग टर्म का इस्तेमाल किया जाता है.
समझें ब्लॉक बुकिंग और कॉरपोरेट बुकिंग में अंतर जाने माने ट्रेड एनालिस्ट गिरीश जौहर समझाते हैं, कि अगर कोई फिल्म रिलीज हो रही हो और उसकी बुकिंग बल्क में उसी फिल्म के स्टूडियो हाउस या प्रोड्यूसर ने करवाई है, तो उसे कॉरपोरेट बुकिंग कहा जाएगा. कॉरपोरेट बुकिंग ब्रांड के जरिए भी की जाती है. इसमें एक से ज्यादा शहरों में एक साथ भारी तादाद पर टिकट की बुकिंग होती है. वहीं ब्लॉक बुकिंग वो होती है, जिसमें किसी फैमिली ग्रुप या फैन क्लब के मेंबर्स छोटे लेवल पर टिकट खरीदते हैं. ये केवल एक सिनेमाघर और शहर तक सीमित होती है.
पुराने समय से चलता आ रहा है ये ट्रेंड गिरीश आगे कहते हैं, ये पहले भी होता था. कई प्रोड्यूसर्स टिकट्स खरीदकर थिएटर को हाउसफुल करार दे देते थे. उस वक्त थिएटर में जब हजार ऑडियंस की सीट्स होती थी, लेकिन टिकट नौ सौ ही बिके, तो प्रोड्यूसर थिएटर वालों से कहता था कि चलो सौ टिकट मेरे नाम से काट दो, ताकि फिल्म हाउसफुल करार दी जा सके. लेकिन उस वक्त मेकर्स इसका इतना प्रेशर नहीं लेते थे. हालांकि अब तो अति हो गई है. पूरा थिएटर खाली पड़ा है और प्रोड्यूसर ने टिकट खरीदकर उसे हाउसफुल डिक्लेयर कर दिया है. हालांकि इससे नुकसान प्रोड्यूसर्स का ही दिखता है. वो अपने ही पैसे लगा रहा है. थिएटर हाउसफुल होने पर प्रोड्यूसर्स को जीएसटी भी भरना पड़ता है. लेकिन कहानी इसके आगे शुरू होती है.
क्या फिल्मों के लिए वाकई फायदेमंद है यह ट्रेंड इसके पीछे मकसद है स्टार्स के कलेक्शन को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का ताकि उस एक्टर की ब्रांड वैल्यू को और बढ़ाया जाए, जिससे उसके नाम पर आगे फिल्में बिकें. दूसरा मकसद इस तरह के फेक डेटा बनाकर दर्शकों के बीच एक सरप्राइज व एक्साइटिंग फैक्टर जगाना होता है, ताकि थिएटर पर उनका फुटफॉल बढ़े. पिछले कुछ सालों में जितनी भी कलेक्शन रिपोर्ट्स रही हैं, मैं इसे दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर मेकर्स यह कह भी दें कि हमारा टिकट सौ प्रतिशत बिक चुका है, तो इस बात में बिलकुल भी सच्चाई नहीं होगी. हालांकि इसका फायदा जुए की तरह होता है. कई बार यह ट्रिक काम कर जाती है, तो कई बार इस ट्रेंड की वजह से प्रोड्यूसर को ही भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है.
एडवांस बुकिंग का होता है प्रेशर साउथ इंडस्ट्री के जाने माने ट्रेड एनालिस्ट रमेश बाला इस कॉरपोरेट बुकिंग के एक और पहलू पर ध्यान दिलाते हैं, 'आज के दौर में कंपटीशन इतना बढ़ चुका है कि मेकर्स को मार्केटिंग के अलग-अलग हथकंडे आजमाने पड़ते हैं. खासकर पिछले कुछ समय से शुरू हुए एडवांस बुकिंग के प्रेशर ने प्रोड्यूसर्स व मेकर्स को मजबूर किया है. फिल्म का पहला इंप्रेशन अच्छा बनाने के लिए वो एडवांस टिकट के जरिए कॉरपोरेट बुकिंग करते हैं, जिससे एडवांस बुकिंग हाउसफुल या 80 प्रतिशत बताए, तो जाहिर सी बात है, अगर किसी को पता चले कि टिकट एडवांस में ही हाथो-हाथ बिक गई है, तो आपका भी उस फिल्म के प्रति इंट्रेस्ट बढ़ेगा.'
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