
नवाज और थिएटर: 'मैं ही अल पचीनो, मैं ही जैक निकलसन, तो मैं ही मार्लन ब्रैंडो..'
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थिएटर से मुझे सांस आती थी.. कई बार थिएटर करते वक्त मैं खुद से मिला हूं. थिएटर की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि यह मुझे हैमलेट बनने का हौसला देता है, तो मेरे ही अंदर रोमियो को भी बाहर ले आता है. यह एक ऐसी क्रिया है, जो तमाम तरह के रंगभेद, कद-काठी जैसे दायरों से अछूता है. ड्रामा करते वक्त मैं हर समय एक फेज पर होता था, कभी अल पचीनो, तो कभी ब्रांडो वाला स्वैग लेकर घूमता था.
नवाजुद्दीन सिद्दीकी आज भले ही फिल्मों में मशगूल हो चुके हैं लेकिन थिएटर को अपनी पहली महबूबा मानते हैं. शायद यही वजह है कि मुंबई के ओशिवारा स्थित नवाज के बंगले की ज्यादातर दीवारें थिएटर की तस्वीरों से सजी हैं. कहीं शेक्सपियर की बड़ी सी तस्वीर है, तो कहीं नवाज के स्टेज के दिनों की तस्वीर.. कई फेमस थिएटर आर्टिस्ट और उनके लिखे प्ले नवाज के घरों को सजाती है.
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) से थिएटर की बारीकियां सीख चुके नवाज हमसे अपने थिएटर के प्रेम पर खुलकर बातें करते हैं. नवाज कहते हैं, आर्टिस्ट के अंदर कभी थिएटर मरता नहीं है. पैसे कमाने में इतना मशगूल हो गया हूं कि इसके लिए वक्त नहीं निकाल पाता हूं. जो आखिरी बार मैंने थिएटर किया था, उसको लगभग बीस साल से भी ज्यादा हो गए हैं. जब मैं मुंबई आया था, तो उस वक्त मैंने एक प्ले डायरेक्ट किया था. उसके बाद कभी स्टेज पर जा ही नहीं पाया. बहुत कोफ्त होती है लेकिन वक्त मिल नहीं पाता है.
थिएटर का जिक्र होते ही नवाज की आंखों में एक अलग किस्म की चमक के साथ-साथ एरोगेंस भी झलकती है. उन्हें इस बात का फक्र है कि उनकी तालीम थिएटर बैकग्राउंड वाली रही है. नवाज कहते हैं, अमूमन हम थिएटर बैकग्राउंड वालों के बारे में यह बात कही जाती है कि हमारे अंदर गुरूर होता है. मैं इस बात से बिलकुल इंकार भी नहीं कर सकता हूं. मुझमें अगर इस बात को लेकर एरोगेंस है, तो इसमें कबूलने में कोई बुराई नहीं है. मैं मानता हूं कि यह होना जरूरी भी है. जितने भी थिएटर से एक्टर आते हैं, वो कमाल के होते हैं और जो हमारी इंडस्ट्री में काम हो रहा है, उसे देखकर उन्हें यही लगता है कि ये उनके स्टैंडर्ड का है ही नहीं.
कितने खूबसूरत एक्टर्स ने थिएटर किया है. वो एक्टर वाली एरोगेंसी होनी इसलिए जरूरी है वर्ना ये लोग कच्चा चबा जाएंगे. फिर भी मैं तो बहुत माइल्ड हूं, पॉलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश करता हूं. कई थिएटर वाले तो बोल जाते हैं कि जिन लोगों को काम धड़ल्ले से मिल रहा है, वो तो इतना डिजर्व भी नहीं करता है. वाकई ये सच है. थिएटर के एक्टर खूबसूरत होते हैं. जिस दिन उन्हें अपने मनमुताबिक काम मिलना शुरू हो गया न, उनकी मिजाज का सिनेमा बनना शुरू हो गया, तो हम वर्ल्ड के प्लेटफॉर्म पर छा जाएंगे. वो काबिलियत है आज के एक्टर्स में है नहीं. थिएटर वालों में वो माद्दा है कि हमारे सिनेमा को इंटरनेशनल लेवल पर पहुंचा सकते हैं.
नवाज आगे कहते हैं, सिर्फ हमारी यही कमजोरी है कि जो मंझे हुए थिएटर के एक्टर्स हैं, उन्हें आपने सपोर्टिंग एक्टर बनाकर रख दिया है. उनके काम को लिमिटेड कर दिया है. वो बेचारे सर्वाइव करने की खातिर वो कर चले जाते हैं. एरोगेंसी से ही उन्हें काम मिलता है, वो होगा नहीं, तो काम में भी नहीं दिखेगा. आपका एटीट्यूड आपकी परफॉर्मेंस में दिखता है. मैं यह नहीं कह सकता कि स्टार इनसिक्योर फील करते हैं या नहीं, लेकिन उन दोनों को सामने रख दो, तो थिएटर के एक्टर ही बेस्ट होते हैं.
अपने न भूलने वाले प्ले का जिक्र करते हुए नवाज कहते हैं, एक प्रसन्नाथ जी हैं, जो हमारे डायरेक्टर रहे हैं. उनके साथ मैंने एक प्ले किया था, जिसका नाम था 'आखिरी किताब'. उस प्ले के दौरान मुझे 104 बुखार था. वो दिन बाकी के रिहर्सल से काफी अलग था. बीमार होने के बावजूद मैं उस काम पर इतना फोकस हो गया कि मुझे किरदार के अलावा कुछ दिखाई देना बंद हो गया था. तीन-चार घंटे के रिहर्सल के बाद मुझे एहसास हुआ कि किरदार की कुछ छोटी-छोटी डिटेल्स पता चली है. मैंने बॉडी के अंदर केमिकल बदलाव को महसूस किया था. जिस दिन शो हुआ था, वो बहुत ही अलग किरदार बनकर निकला था. ये एक एक्सपीरियंस हुआ था, जिसे शायद मैं समझा नहीं पा रहा हूं. ये मेरे रेग्युलर रिहर्सल से काफी अलग था. वो एक ऐसा लम्हा था, जहां मैं पूरी तरह सत प्रतिशत फोकस हो गया था. फीवर की वजह से मेरा सारा ध्यान केवल उस किरदार पर फोकस हो गया था. मैं मेडिटेशन की उस स्टेज पर चला गया था, जिसका एहसास शायद दोबारा नहीं कर पाया.













