ऑपरेशन ऑक्टोपस, बुलबुल और थंडर... Red Terror से 'बूढ़ा पहाड़' के आजाद होने की कहानी
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बूढ़ा पहाड़ भारत के उस हिस्से की कहानी है जहां पहुंचते-पहुंचते विकास हांफने लगा है. लेकिन देर से ही सही 22 साल बाद नक्सलियों के इस मांद में सीएम हेमंत सोरेन पहुंचे हैं. अब उम्मीद है कि ये स्थान धीरे-धीरे ही सही विकास की मुख्यधारा में शामिल होगा.
दुर्गम, दुर्दांत बूढ़ा पहाड़ पर आखिरकार 22 साल बाद 'सरकार' के कदम पड़ ही गए. घने जंगलों में छिपा ये पहाड़ वो इलाका था जहां कभी नक्सलियों की अदालतें लगती थी और कुख्यात नक्सली अरविंद का हुक्म चलता था. माओवादी अपने फैसले सुनाते थे और जंगल में रहने वाली गरीब आदिवासी जनता इन फैसलों का पालन करने को मजबूर थीं.
पुलिस यहां आती नहीं थी. अधिकारी तो आस-पास भी नहीं फटकते थे. पुलिस-अधिकारी आते भी कैसे? घने जंगलों, गुफाओं से घिरे इस पहाड़ तक आने का कोई रास्ता ही नहीं था. ऊपर से माओवादियों का आतंक. राज्य सरकार के कानून यहां तक आते आते बेमानी हो जाते थे.
अब 22 साल बाद झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन अपनी पूरी मशीनरी के साथ इस जगह पर पहुंचे हैं और इस इलाके के विकास के लिए 100 करोड़ रुपये की योजनाओं का ऐलान किया है.
बूढ़ा पहाड़ की जिओग्राफी
बूढ़ा पहाड़ को समझने से पहले इस स्थान की जिओग्राफी और सोशोलॉजी को समझना जरूरी है.
बूढ़ा पहाड़ झारखंड में स्थित एक क्षेत्र है. राज्य की राजधानी रांची से लगभग 150 किमी दूर नक्सल प्रभावित रहे लातेहार और गढ़वा जिलों के साथ स्थित 'बूढ़ा पहाड़' को 30 साल के बाद सुरक्षा बलों ने 'लाल आतंक' से मुक्त कराया था. इस क्षेत्र की सीमाएं झारखंड के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ से भी मिलती है. छत्तीसगढ़ में जब नक्सली खदेड़े जाते हैं तो वे इधर ही भागते हैं.
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