
सेकुलर भारत में अंतिम सांस लेने की चाहत रखने वाले फली एस नरीमन की कहानी, जिन्होंने कहा था- काश मैं ये केस हार गया होता...
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वरिष्ठ अधिवक्ता फली सैम नरीमन ने देश के लोकतंत्र और न्यायतंत्र को न सिर्फ विकसित होते हुए देखा, बल्कि वे खुद भी इस प्रक्रिया के भागीदार रहे. एक केस में नरीमन की पैरवी ने ही इस देश में कॉलेजियम सिस्टम का रास्ता खोला, हालांकि बाद में उनका इस व्यवस्था से मोहभंग भी हुआ. सेकुलर भारत में अंतिम सांस लेने की इच्छा रखने वाले नरीमन भारत में धार्मिक कट्टरवाद के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित थे.
फली सैम नरीमन का व्यक्तित्व भारत की न्यायिक व्यवस्था में वट वृक्ष जैसा था.विशाल और घना और समावेशी.पद्म भूषण और पद्म विभूषण से अलंकृत वरिष्ठ अधिवक्ता फली सैम नरीमन ने भरपूर जिंदगी जी और 95 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा हुए. उन्होंने 70 साल तक न्याय जगत की सेवा की और विधि शास्त्र में कई स्थापनाएं लेकर आए. उन्होंने 1950 में बॉम्बे हाई कोर्ट में वकालत की शुरुआत की और निधन के कुछ समय पहले तक न्यायिक बिरादरी में सक्रिय रहे.
इतने लंबे समय तक सक्रिय रहने की वजह से उन्होंने देश के लोकतंत्र और न्यायतंत्र को न सिर्फ विकसित होते हुए देखा, बल्कि वे खुद भी इस प्रक्रिया के भागीदार रहे. क्या आप जानते हैं कि देश में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति की जो कॉलेजियम सिस्टम की प्रक्रिया है उसका श्रेय फली एस नरीमन को जाता है.
काश मैं ये केस हार जाता...
देश की न्यायिक व्यवस्था में सेकेंड जज केस (Second judges case) नाम के एक मामले का जिक्र आता है. 1993 के इस केस की पैरवी फली एस नरीमन ने ही थी. इसी केस में जजमेंट के फलस्वरुप में देश में कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत हुई थी. लेकिन बाद में इस सिस्टम से वे खुश नहीं दिखे थे. और उन्हें पछतावा हुआ था कि काश वो ये केस हार जाते. साल 2010 में आई पुस्तक बिफोर मेमोर फेड्स (Before memory fades) में नरीमन ने इस केस के जीतने पर अफसोस जताया था. ये पुस्तक उनकी जिंदगी की घटनाओं का दस्तावेज है.
कॉलेजियम सिस्टम पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने एक इंटरव्यू में कुछ ही महीने पहले कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के जज बड़ी काबिलियत और निष्ठा से केसों का निपटारा करते हैं, मेरा मत है कि जज इस योग्य नहीं है कि वे ये तय कर सकें कि किसे बड़ी अदालतों का जज होना चाहिए और किसे नहीं, या फिर किस जज का ट्रांसफर कहां होना चाहिए. इससे एक तरह से उनके मूल काम पर असर पड़ता है.
हालांकि ये बड़ी विडंबना है कि 1993 में उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ इस केस की पैरवी की थी. इस बाबत जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा था कि वे एक अच्छे वकील के तौर पर अपना काम कर रहे थे.

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