
...उस रात की कहानी जब सरकार को दांव पर लगाकर मनमोहन सिंह ने अमेरिका से न्यूक्लियर डील की फाइनल
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भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील को लेकर लेफ्ट पार्टियां सहज नहीं थी. लेफ्ट पार्टियों को लगता था कि इस समझौते से भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर असर पड़ेगा और स्वायत्तता पर अमेरिका की छाप पड़ेगी. इन पार्टियों का मानना था कि ये समझौता अमेरिका की ओर से फेंका गया एक जाल है, जिसका मकसद भारत को सैन्य और रणनीतिक स्तर पर खुद से बांधना है.
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का 92 साल की उम्र में इंतकाल हो गया. वह ताउम्र बेहद शांत, सौम्य, विनम्र और सादगी भरे शख्सियत के तौर पर पहचाने जाते रहे. प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दस साल के कार्यकाल के दौरान उन्हें तमाम आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने कुछ ऐसे बोल्ड फैसले भी लिए, जिनके लिए उन्हें याद किया जाता रहेगा. इन्हीं फैसलों में से एक था- भारत और अमेरिका की न्यूक्लियर डील... लेकिन इस डील का जिक्र करने से पहले 18 जुलाई 2005 की उस रात की कहानी जान लेना जरूरी है, जिसकी वजह से दुनिया मनमोहन सिंह के बोल्ड अंदाज से रूबरू हो पाई.
1974 में राजस्थान के पोखरण में देश के पहले परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में तनाव बना रहा. लेकिन जब मई 2004 में मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्हें अमेरिका से रिश्ते सुधारने की पहल की. जुलाई 2005 में मनमोहन सिंह ने अमेरिका का दौरा भी किया. लेकिन मनमोहन सिंह ही नहीं कोंडोलीजा राइस भी इस डील को फाइनल कराने में एक इंपोर्टेंट किरदार रहीं. कोंडोलीजा राइस ने जनवरी 2005 में अमेरिका के विदेश मंत्री का पद संभाला था. उन्होंने विदेश मंत्री की कुर्सी संभालते ही भारत के साथ न्यूक्लियर डील को अपने मेन एजेंडे में शामिल किया. यही वजह रही कि वह कुछ ही महीने के भीतर मार्च में ही भारत दौरे पर आ गईं. यहां उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और विदेश मंत्री नटवर सिंह से मुलाकात की. उन्होंने दोनों नेताओं को बताया कि राष्ट्रपति बुश भारत के साथ इस डील को लेकर बहुत सकारात्मक हैं.
महीनों के मंथन के बाद डॉ. मनमोहन सिंह 17 जुलाई 2005 को अमेरिका गए. इस दौरान उनके साथ उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी था. मनमोहन सिंह को पूरी उम्मीद थी कि वह अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील को अंतिम रूप देंगे. लेकिन अमेरिका पहुंचने से पहले उन्होंने दो बड़े निर्णायक फैसले लिए. पहला- उन्होंने एटॉमिक एनर्जी कमीशन (एईसी) के चेयरमैन अनिल काकोडकर को अपने प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया. उन्हें आभास हो गया था कि अमेरिका के साथ इस प्रस्तावित डील को लेकर एईसी आपत्ति उठा सकता है.
लेकिन इस प्रस्तावित डील को लेकर लेफ्ट पार्टियां सहज नहीं थी. लेफ्ट पार्टियों को लगता था कि इस समझौते से भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर असर पड़ेगा और स्वायत्तता पर अमेरिका की छाप पड़ेगी. इन पार्टियों का मानना था कि ये समझौता अमेरिका की ओर से फेंका गया एक जाल है, जिसका मकसद भारत को सैन्य और रणनीतिक स्तर पर खुद से बांधना है.
नटवर सिंह को एक दिन पहले भेजा था अमेरिका...
लेकिन लेफ्ट पार्टियां ही नहीं बल्कि सोनिया गांधी की आपत्ति भी मनमोहन सिंह के लिए चिंता का सबब थी. इसका कारण था कि सोनिया गांधी लेफ्ट पार्टियों से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहती थीं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि यूपीए सरकार के भविष्य के लिए लेफ्ट पार्टियों का साथ जरूरी भी था.

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