
संघ के 100 साल: तिरंगा, फायरिंग और मौतें... गोवा की मुक्ति में बलिदान होने वाले स्वयंसेवकों की कहानी
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1955 में जब गोवा मुक्ति संग्राम शुरू हुआ तो कई स्वयंसेवक इस आंदोलन में कूद पड़े. 15 अगस्त 1955 को तिरंगा लेकर रामभाऊ गोवा में दूसरे स्वयंसेवकों के साथ गोवा में प्रवेश कर रहे थे. पुर्तगालियों ने गोली चलाने की धमकी दी, लेकिन रुकने का सवाल ही नहीं था. पहली गोली बसंतराव ओक के पैर में लगी. दूसरी गोली पंजाब के हरनाम सिंह के सीने में लगी. फिर संगीनों के सामने रामभाऊ थे. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.
आम तौर पर हैदराबाद हो या गोवा का भारत में विलय, आखिरी उपाय के तौर पर भारतीय सेना के ही ऑपरेशंस को आजमाया गया और ज्यादातर लोग उन्हीं को श्रेय देते आए हैं. लेकिन हर संग्राम के कई गुमनाम नायक भी होते हैं, जिनको गोवा में तो आज तक याद किया जाता है, लेकिन बाकी देश में उनकी चर्चा कम ही होती है. RSS के भी तमाम स्वयंसेवक ऐसे थे जो वहां आजादी की अलख जगाते जगाते अपना बलिदान कर गए, चाहे वो हैदराबाद हो, गोवा हो या दादरा नागर हवेली. गोवा मुक्ति संग्राम तो वैसे भी लम्बा चला, भारत की आजादी के 15 साल तक गोवा पुर्तगालियों की गुलामी से मुक्त ही नहीं हो पाया था. गोवा और दादरा नागर हवेली के लम्बे संग्राम में संघ के जिन स्वयंसेवकों ने अहम भूमिका निभाई, आज इस लेख में आप उनके बारे में जानेंगे.
तिरंगा फहराने के लिए रामभाऊ महाकाल ने दे दी थी अपनी जान
जो लोग RSS को तिरंगा फहराने के नाम पर सालों से घेरते रहे हैं, उनके लिए ये जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है. उन्हें यकीन ही नहीं आएगा कि कोई स्वयंसेवक तिरंगा फहराने के लिए इतना आतुर था कि गोलियां चलती रहीं और वो उसे लगती भी रहीं, लेकिन वो रुका नहीं, गिरा नहीं. सतीश दवे की किताब ‘एक भूला सा सेनानी: गोवा स्वातंत्र्य सेनानी रामभाऊ महाकाल’ से जानकारी मिलती है कि रामभाऊ महाकाल उज्जैन के ज्योर्तिंलिंग महाकाल मंदिर के पुजारी बलवंत भट्ट तेलंग महाकाल के पुत्र थे. उनकी मां का नाम अन्नपूर्णा था. उनका जन्म 26 जनवरी 1923 को हुआ था, बचपन से ही उनका वेद, उपनिषद, अन्य शास्त्रों का गहन अध्ययन शुरु हो गया था. चूंकि देश आजाद नहीं था, सो अन्य युवाओं की तरह उनका मन भी देश के लिए कुछ करने का था.
इसी दौरान उनका सम्पर्क उज्जैन में संघ के प्रचारक दिगम्बर राव तिजारे से हुआ. उनके विचारों और कार्य को देखकर रामभाऊ भी प्रभावित होने लगे, और पारम्परिक अनुष्ठान के कार्य की बजाय उन्होंने जनता की सेवा का रास्ता चुना और 1942 में वह भी संघ के प्रचारक बन गए. उनको पहले सोनकच्छ तहसील भेजा गया. वहां के लोग उनकी बहादुरी और समाजसेवा की तमाम कहानियां आज भी सुनाते हैं कि कैसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कश्मीर आंदोलन के लिए वह उज्जैन से पैदल दिल्ली गए थे. उन्होंने सोनकच्छ तहसील में ही 33 शाखाएं खड़ी की थीं.
संघ पर जब प्रतिबंध लगा तब बाकी प्रचारकों की तरह घर लौटने के बजाय उन्होंने सोनकच्छ तहसील में ही एक भोजनालय खोल लिया था, अब पुलिस उनसे कुछ कह नहीं सकती थी और सारे स्वयंसेवकों से वहीं मिलना हो जाता था. ये एक तरह से ‘भोजनालय शाखा’ थी, जिसके चलते वहां संघ का कार्य कभी बंद नहीं हुआ. 1955 में जब गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन का आह्वान हुआ तो 14 अगस्त की रात में राजाभाऊ समेत 2500 स्वयंसेवकों का जत्था सीमा पर पहुंच चुका था. देश भर के अलग अलग इलाकों से जत्थे आ रहे थे. ये सभी लोग भी पहले पुणे में इकट्ठा हुए थे. माना जाता है कि अलग अलग जत्थों में करीब 10 हजार लोग थे. कांग्रेस को छोड़कर बाकी ज्यादातर विचारधारा वाले दलों ने ‘गोवा विमोचन सहायक समिति’ नाम का संगठन बनाया था. इसी की अगुवाई में ये मार्च निकला था.
रामभाऊ समेत 51 की मौत की वजह से बना ये ‘गोवा का जलियांवाला बाग’

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