
प्रकाश झा बोले-दुख, तकलीफ, डर के बावजूद...जो कहना है वो तो कहेंगे ही!
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प्रकाश झा इन दिनों अपनी सुपरहिट सीरीज आश्रम को लेकर चर्चा में हैं. हालांकि आश्रम के मेकिंग के दौरान प्रकाश को कई तरह के विवादों का सामना करना पड़ा था. यहां तक की भोपाल में उनके सेट पर कुछ लोगों ने तोड़-फोड़ भी मचाई थी.
जाने-माने निर्देशक प्रकाश झा की सीरीज आश्रम के रिलीज होते ही इसके चौथे सीजन को लेकर चर्चा चल रही है. प्रकाश न केवल इसपर अपना पक्ष रखा बल्कि बदलते सिनेमा के दौर, प्रोपेगेंडा फिल्में, साउथ वर्सेज बॉलीवुड जैसी कई मुद्दों पर Aajtak.in खुलकर बातचीत की.
खबर है कि आश्रम का चौथा सीजन भी आने वाला है? - ये खबर मुझे नहीं पता है. चौथे सीजन के बारे में बाबा ही बता पाएंगे. थर्ड के रिस्पॉन्स के हिसाब से ही चौथे सीजन की तैयारी की जाएगी. तो यह अब बाबा और दर्शकों पर पूरी तरह निर्भर करता है.
आपने सिनेमा और उसकी मेकिंग के बदलते हुए दौर को देखा है. आप इस बदलाव पर कैसे रिस्पॉन्स करते हैं? - देखें, जब आपकी उम्र बढ़ती है, तो आप पहले जैसे कहां रह पाते हो. आपका अनुभव बढ़ता है, रेफरेंसेस बढ़ते हैं, आपकी लाइब्रेरी व संबंध सबकुछ ग्रो करता जाता है. उसी तरह से सिनेमा भी बढ़ रहा है. हम टेक्नॉलजी के पैमाने में आगे बढ़े हैं लेकिन कंटेंट तो वही है न. कंटेंट आपको इंगेज नहीं करता है, तो सबकुछ बेमानी सा नजर आता है. कंटेंट को इंगेज करने के लिए हम एक ही तरह की चीजें नहीं इस्तेमाल कर सकते हैं. जब हम हल्ला, हाय तौबा मचाते हैं कि सेक्स बहुत है, वायलेंस बहुत है, तो क्या चीजें उसी से केवल चलती हैं. नहीं न. सबसे जरूरी बात यही है कि कहानी हम कैसे पेश करते हैं और दर्शक उससे कैसे जुड़ते हैं. अब सारा फोकस उसी पर होगा. सिनेमा टेक्नॉलजी पर ग्रो कर भी जाए, प्लैटफॉर्म के ढेर सारे ऑप्शन मिल जाएं लेकिन कहानी जरूरी है. आदमी कहानियों के जरिए ही एंटरटेन होना चाहता है.
फिल्मों में कई बार बॉक्स ऑफिस का प्रेशर डायरेक्टर्स की क्रिएटिविटी पर भी डाला जाता है. आप मानते हैं ओटीटी ने उन्हें क्रिएटिव फ्रीडम दी है? - दो तरीके हैं, एक तो हम सिनेमा देखते हैं सामुहिक रूप से और जब एकांत देखते हैं, तो भाषा अलग सी होती है. हमारी ट्रेनिंग भी उसी हिसाब से की जाती है. हम एक मर्यादा और शऊर में ग्रुप में बैठे सिनेमा का लुत्फ उठाते हैं. हमें लिबर्टी तो उतनी ही दी जाती है न. हम दायरे में रहकर ही अपनी बात करते हैं.लिबर्टी को जिम्मेदारी के साथ निभाई जाए, तो बेहतर है. जो इस परवरिश से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, तो वो औंधे मुंह भी गिरते हैं. हमारे समाज की ये बात है कि हम जल्दी ऑफेडेंड हो जाते हैं. कोई लड़की जींस पहन कर निकल जाए, तो हमें बुरा लग जाता है. जल्द ही किसी बात का बुरा मानना जैसे हमारे समाज का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया हो. इसी में नेगोशियेट कर रहना पड़ता है हमें.
ईशा को शूट करते हुए एंजेलिना जोली व लारा दत्ता को क्यों याद करते थे प्रकाश झा?
आश्रम ने कई सारे विवाद झेले हैं. आपको लगता है कि सीरीज की सक्सेस ने इन जख्मों को कम किया है? - ऐसा है कि जब भी सामाजिक विषयों पर बातचीत होगी, तो निगेटिव लोग होंगे. हमारा समाज ही ऐसा है, कई बार लगता है कि वक्त के साथ चीजें ठीक हो जाएंगी. नहीं हो पाती हैं, और जब सामने आती हैं, तो बर्दाश्त करना पड़ता है. ये सच्चाई है, हमारे समाज का विहेवियर ऐसा ही है. हम कहां लड़ते रहें जिंदगीभर. संवाद की स्थिति कभी रही नहीं. तो ऐसे में बर्दाश्त करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है.

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