'वीराना' बनाने वाले रामसे ब्रदर्स की इंस्पिरेशन थी पृथ्वीराज कपूर की फ्लॉप फिल्म, ऐसे बने थे हॉरर के उस्ताद
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क्या आप जानते हैं कि रामसे ब्रदर्स अपने जिस सिग्नेचर हॉरर को 'वीराना' तक लेकर आए, उसका आईडिया असल में एक सॉलिड मेनस्ट्रीम फिल्म से निकला था जिसके हीरो हिंदी सिनेमा के लेजेंड पृथ्वीराज कपूर थे? आइए बताते हैं रामसे ब्रदर्स और 'वीराना' की कहानी...
37 साल पहले 'तेजाब' में अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित की लव स्टोरी जनता के दिल में उतर रही थी. उसी साल हिंदी फिल्म फैन्स को भविष्य के सुपरस्टार्स बनने वाली खान तिकड़ी के पहले स्टार, आमिर खान भी स्क्रीन पर मिले. जूही चावला के साथ उनकी लव स्टोरी 'कयामत से कयामत तक' को ब्लॉकबस्टर कामयाबी लेकर आई. और इसी साल, 1988 में थिएटर्स को एक बहुत अलग, बहुत अनोखी हॉरर फिल्म मिली जिसे आने वाले सालों में कल्ट-क्लासिक का दर्जा मिल गया. फिल्म का नाम था- वीराना.
रामसे ब्रदर्स की ट्रेडमार्क फिल्ममेकिंग फैक्ट्री से निकला वो हीरा जिसने जनता में ऐसी पैठ बनाई कि लोग आज भी इसे नहीं भूले हैं. 'वीराना' में भी वही चीजें थीं जो रामसे ब्रदर्स का ट्रेडमार्क थीं- बहुत लिमिटेड बजट, अनजान चेहरे, सेक्स सीन्स, ऑडियंस में सनसनी पैदा करने वाले कपड़ों में नजर आ रही एक्ट्रेस, अचानक से डरा देने वाला भूतिया हॉरर और विचलित कर देने वाला खून-खराबा. मेनस्ट्रीम सिनेमा में हॉरर फिल्मों को बड़ा दर्जा मिलने से पहले, रामसे ब्रदर्स अपने इस 'बी-ग्रेड' कहे जाने वाले सिनेमा से, हॉरर को पॉपुलर बना रहे थे.
'वीराना' और रामसे ब्रदर्स की दूसरी फिल्मों को भले बी-ग्रेड सिनेमा में रखकर ही देखा जाता रहा हो. लेकिन क्या आप जानते हैं कि रामसे ब्रदर्स अपने जिस सिग्नेचर हॉरर को 'वीराना' तक लेकर आए, उसका आईडिया असल में एक सॉलिड मेनस्ट्रीम फिल्म से निकला था जिसके हीरो हिंदी सिनेमा के लेजेंड पृथ्वीराज कपूर थे? ये सारा खेल शुरू हुआ था कराची में एक रेडियो की दुकान से...
रामसे ब्रदर्स की फिल्मी विरासत आजादी से पहले के भारत में फतेहचंद यू. रामसिंघानी, कराची में एक रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक शॉप चलाया करते थे. उनके अधिकतर कस्टमर ब्रिटिश थे जिन्हें उनका पूरा नाम बोलने में दिक्कत होती थी तो उन्होंने रामसिंघानी को रामसे बुलाना शुरू कर दिया. 1947 में देश का बंटवारा हुआ और सारे बवाल के बीच फतेहचंद 'रामसे' ने मुंबई आकर अपनी दुकान खोल ली.
सिंधी परिवार से आने वाले फतेहचंद बिजनेस में तेज थे और 60 के दशक में जब हिंदी सिनेमा बढ़ना शुरू हुआ तो वो भी हाथ आजमाने उतर गए. उस दौर में तमाम नई कंपनियां और लोग फिल्मों में पैसे लगाकर अच्छा मुनाफा कमा रहे थे. इस इरादे ने ही आगे चलकर मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा के पैरेलल चलने वाली बी-ग्रेड फिल्म इंडस्ट्री को जन्म दिया. मगर फतेहचंद ने शुरुआत बड़े काम से की और अपने नए पुकार-नाम 'रामसे' के साथ फिल्म प्रोडक्शन में कदम रखा.
परिवार से ही बनी फिल्म यूनिट भारतीय क्रांतिकारी भगत सिंह पर बनी पहली फिल्म 'शहीद-ए-आजम' (1954) में रामसे को-प्रोड्यूसर थे. उनके प्रोडक्शन में बनी 'रुस्तम सोहराब' (1963) में राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर और सुरैया थे, जो उस वक्त हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के आइकॉन थे. इस फिल्म की कामयाबी के बाद रामसे ने तय कर लिया कि वो अब फिल्म प्रोडक्शन में ही आगे बढ़ेंगे. अपने पैशन और पैसों के साथ रामसे ने अपने सातों बेटे भी फिल्म इंडस्ट्री को दिए.













