
क्या वन नेशन-वन इलेक्शन जनता के संवैधानिक अधिकारों पर अतिक्रमण है? संविधान सभा में भी उठा था सवाल
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वन नेशन वन इलेक्शन से जुड़ा 129वां संविधान संशोधन बिल आज लोकसभा में पेश किया जाएगा. देश भर में एक साथ चुनाव कराने का मुद्दा तब भी सामने आया था जब संविधान बनाया जा रहा था. संविधान सभा में जब चुनाव आयोग की शक्तियों पर चर्चा हो रही थी तो डॉ भीम राव आम्बेडकर और संविधान सभा के दूसरे संदस्यों ने इस पर राय दी थी. इस दौरान संविधान सभा ने देश में एक साथ चुनाव ना कराने की विधायी मंशा को दर्शाया है.
दुनिया में भारत का लोकतंत्र नजीर क्यों है? हिंदुस्तान में शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली सफल क्यों रही? यूं तो इस प्रश्न के कई जवाब हो सकते हैं लेकिन एक जो सबसे अहम फैक्टर है वो है हमारा चुनाव. इलेक्शन जन भागीदारी का मजबूत और व्यापक माध्यम है. ये हमारे लिए वरदान सरीखा ही है कि चुनाव की इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत के नागरिकों पर कम से कम फिल्टर लगाए.
चुनाव वो प्लेटफॉर्म है जिसके जरिये भारत का नागरिक वोट के अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग कर सरकारें चुनता या बदलता है. चुनाव में शामिल होकर वो अपना गुस्सा, खीज, संतोष या प्रशंसा जाहिर कर सकता है. चुनाव उसके राजनीतिक विवेक की अभिव्यक्ति है. चुनाव उसके संवैधानिक इकाई होने का सबूत है. इसके जरिये वह देश के लोकतंत्र से खुद को कनेक्ट करता है. इलेक्शन लोकतंत्र में भागीदारी का सबसे मजबूत, भरोसेमंद, विश्वसनीय और जवाबदेह प्लेटफॉर्म है.
मतदाता के राजनीतिक विवेक की अभिव्यक्ति होता है चुनाव चुनाव में जनता की भागीदारी का अधिकार संविधान द्वारा गारंटीड है. चाहे चुनाव लड़ने के मानक हों या फिर वोट देने की योग्यता- हमारे संविधान निर्माताओं ने संजीदगी का परिचय दिया और अनपढ़, गरीब जनता के लिए चुनाव की प्रक्रिया में भागदारी के लिए कम से कम शर्तें/अहर्ता रखीं.
संविधान का अनुच्छेद 326 लोकसभा एवं राज्य के विधानसभाओं में होने वाले चुनाव से संबंधित है. इस अनु्च्छेद की व्यवस्था है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव सार्वभौम व्यस्क मताधिकार (Universal adult suffrage) के आधार पर होंगे. इसका अर्थ यह है कि देश में एक व्यक्ति, एक मत (One person one vote) की नीति है. 18 वर्ष के व्यक्ति मत डालने के अधिकारी होंगे और सभी मतदाताओं के मत का महत्व समान होगा, इसमें जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा.
इसी तरह चुनाव लड़ने के लिए भी संविधान में बेहद मामूली अहर्ताएं हैं. जैसे वह भारत का नागरिक हो, उम्र 25 वर्ष से कम न हो, किसी अपराध में दोषी न हो और उसे दिवालिया घोषित न किया गया हो (अनुच्छेद 84,173). बस इतना ही. न शिक्षा की बाध्यता, न धन का बंधन.
संविधान लिखने वाले चाहते थे कि भारत का हर एक नागरिक इस प्रक्रिया से जुड़े. इससे उसके अंदर जिम्मेदारी और अधिकार दोनों का बोध पनपने वाला था. इसमें कोई शक नहीं कि संविधान बनाने वालों का ये दर्शन अपने उद्देश्य में सफल रहा. सन् 1975 की घटना को छोड़ दें तो 75 सालों का भारत का संवैधानिक इतिहास हमारे लोकतंत्र की सफलता का दस्तावेज है. वर्ना दक्षिण एशिया में कई प्रजातंत्रों को सैन्य बूटों ने कुचल दिया है.

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