'हम वहां काफिर थे, यहां टेररिस्ट बताए जा रहे हैं, कोई बर्तन तक छूने नहीं देता' पाक से लौटे हिंदुओं की आपबीती
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आज भी वो दिन याद है जब हमने पाकिस्तान छोड़ा. रसोई में बर्तन साफ करके औंधे रखे हुए. खूंटी पर लटके कपड़े. करीने से रखे बच्चों के बैग. यहां तक कि टोकरी में दो-चार आलू-प्याज भी थे. जो चीजें गायब थीं, उनपर किसी का ध्यान नहीं जाएगा. राम जी की तस्वीर. सबसे छोटे बेटे के कुछ खिलौने और तीन-चार जोड़ी कपड़ा-लत्ता.
पत्नी ने दीवारों पर लगे भगवान के पुराने पोस्टरों और त्रिशूल की छाप को गोबर से लीप दिया ताकि 'बेअदबी' न हो
सिंध में तीन पीढ़ियां पली-बढ़ीं. लेकिन आखिर में यही हमारी पूंजी रही. अपनी उम्मीदों से भी हल्के बैग लेकर जब लाहौर के लिए निकले, तब जिसने भी देखा होगा, यही सोचा होगा कि हम किसी नातेदार के यहां शादी-ब्याह में जा रहे हैं.
लगभग 40 की उम्र के किशन का चेहरा सूखकर खत्म होते पत्ते पर हरेपन की आखिरी बूंद-सा है. उम्मीद खोकर भी उम्मीद खोजता हुआ.
इसी साल की शुरुआत में किशन सिंध के खैरपुर से भारत आए. 'अपने देश. अपनों के बीच.'
कैसे आए? मैं रूट समझने से शुरुआत करती हूं.