
भारत की 2500 साल पुरानी प्राचीन कठपुतली कला से जन्मा सिनेमा, क्या आप जानते हैं?
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अपने डेढ़-दो सौ साल के इतिहास में सिनेमा और इसकी तकनीक का जिस तरह विकास हुआ है, उसमें यकीनन दुनिया भर के वैज्ञानिकों, आविष्कारकों और टेक्नीशियनों का हाथ है.मगर ये जानकर आप हैरान हो जाएंगे कि लाइट और इमेज के जिस सिद्धांत पर सिनेमा का जन्म हुआ, वो असल में भारत की की एक कठपुतली कला से इंस्पायर है.
आपने आखिरी बार कठपुतली का खेल कब देखा था? इसका जवाब सोचने में शायद आपको कुछ मिनट लगेंगे. हो सकता है कि बहुत से लोगों ने कभी ये खेल देखा भी ना हो. लेकिन इतना तो तय है कि करीब 2500 साल पुरानी एक कठपुतली कला के सिद्धांत पर ही बनी, एक बहुत पॉपुलर आर्ट फॉर्म आपने हाल ही में देखी होगी जिसे फिल्म-मूवी या सिनेमा कहते हैं.
एक अंधेरे थिएटर में 500-1000 लोगों के साथ बैठकर एक फिल्म देखना और कहानी के इमोशनल, ड्रामेटिक और उत्साह भरे मोमेंट्स को फील करना एक ऐसा अनुभव है जिसकी कोई बराबरी नहीं है. अपने डेढ़-दो सौ साल के इतिहास में सिनेमा और इसकी तकनीक का जिस तरह विकास हुआ है उसमें यकीनन दुनिया भर के वैज्ञानिकों, आविष्कारकों और टेक्नीशियनों का हाथ है. मगर ये जानकर आप हैरान हो जाएंगे कि लाइट और इमेज के जिस सिद्धांत पर सिनेमा का जन्म हुआ, वो असल में भारत की ही एक कठपुतली कला से इंस्पायर है.
कैसे सिनेमा का इंस्पिरेशन बनी कठपुतली? सिनेमा का पूरा खेल प्रोजेक्शन के साइंस पर आधारित है. एक फिल्म पर छपी तस्वीर को, लाइट की मदद से किसी पर्दे पर उतारना ही प्रोजेक्शन का सारा खेल है. सेल्युलॉयड फिल्म पर तस्वीर उतारने वाला यंत्र यानी कैमरा, 19वीं सदी की शुरुआत से अस्तित्व में आने लगा था.
कैमरा के आने से लगभग 200 साल पहले, 17वीं सदी में तस्वीरों को लेंस और लाइट की मदद से बड़े पर्दे पर उतारने का खेल शुरू हो चुका था. पहले ये तस्वीरें पेंटिंग्स या प्रिंट की शक्ल में एक स्लाइड पर होती थीं. इसे एंटरटेनमेंट और शिक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाना शुरू हो चुका था. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि एक छोटी तस्वीर को लाइट और लेंस की मदद से बड़े पर्दे पर उतारने का आईडिया कहां से आया?
ये आईडिया आया शैडो प्ले या छाया नाटक से. बचपन में मोमबत्ती या टॉर्च लाइट की मदद से, हाथ की उंगलियों से कुत्ते या दूसरी आकृतियां बनाकर, दीवार पर इस आकृति की परछाई उतारने का खेल तो आपने देखा ही होगा. यही शैडो प्ले था, जो अपने बेसिक अवतार में पहली बार शायद तब अस्तित्व में आया होगा, जब इंसान ने लाइट के रुकने से बनी कोई परछाईं किसी दीवार पर देखी होगी. लेकिन समय के साथ इंसानी सभ्यताओं ने परछाईं के इस खेल को किस्सागोई का एक माध्यम बना लिया.
इस माध्यम में सबसे पहली शुरुआत उन शैडो थिएटर्स से हुई जिसमें कठपुतलियों के कट आउट काटे गए. कपड़े की एक स्क्रीन लगाई गई और उसके पीछे लाइट जलाकर इन कठपुतलियों की परछाईं को उस स्क्रीन पर उतारा गया. स्क्रीन पर जो परछाईयां उतरीं, उन्हें किरदारों की तरह मूवमेंट देते हुए कहानियां कही गईं. इसे एक प्राचीन आर्ट माना जाता है. कठपुतली से होने वाला ये छाया नाटक ही आज के सिनेमा की प्रेरणा बना और तस्वीरों को स्क्रीन पर प्रोजेक्ट करने के आईडिया पर काम हुआ.

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