
Chandu Champion Review: गिरकर उठना-उठकर दौड़ना सिखाती है चंदू चैंपियन, कार्तिक ने दी अब तक की बेस्ट परफॉर्मेंस
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कार्तिक आर्यन स्टारर फिल्म 'चंदू चैंपियन' का इंतजार दर्शकों को बेसब्री से था. अब इस फिल्म ने सिनेमाघरों में दस्तक दे दी है. हम अपने रिव्यू में बता रहे हैं कि आखिर कैसी है ये फिल्म और कैसा है इसमें एक्टर का काम.
बॉलीवुड में बायोपिक का अपना अलग ट्रेंड है. भारत में कई महान और क्रांतिकारी लोग रहे हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी में वो कर दिखाया जिसकी कल्पना कभी किसी ने नहीं की थी. उन्होंने ऐसे सपने देखे, जिन्हें सच कर पाना आज भी कई लोगों के लिए नामुमकिन बात है. रील्स और सोशल मीडिया की दुनिया से पहले भी एक दुनिया थी, जब लोग दूसरों की खुशी में खुश होते थे, उन्हें अपना सपना पूरा करते देख प्रेरित होते थे और ऐसी चीजें कर दिखाने की क्षमता रखते थे, जिनके बारे में सुनकर देश के हर इंसान का सीन गर्व से चौड़ा हो जाए. ऐसी ही एक कहानी को पर्दे पर उतारा है डायरेक्टर कबीर सिंह ने. उनकी फिल्म का नाम है 'चंदू चैंपियन'.
प्रेरणा देती है फिल्म की कहानी
ये कहानी है भारत के पहले पैरालम्पिक गोल्ड मेडल विजेता मुरलीकांत राजाराम पेटकर की. उनके किरदार को निभाया है एक्टर कार्तिक आर्यन ने. मुरलीकांत की जिंदगी की कहानी को जब आप सुनते हैं तो लगता है कि ये किसी दूसरी दुनिया की बात है. लेकिन कहते हैं न कभी-कभी सच सोच से ज्यादा हैरान करने वाला होता है. छोटे मुरली ने 1952 में भारत के महान रेसलर रहे खाशाबा दादासाहब जाधव को ओलम्पिक में गोल्ड मेडल जीतकर घर वापस आते देखा था. वहीं से उसने खुद ओलम्पिक चैंपियन बनने का सपना देखा. इसके बाद गांव के अखाड़े में पहलानों को ट्रेनिंग देने वाला गुरु के पैरों में गिरकर उनका पट्टू (चेला) बन गया.
गुरु को ये नहीं पता था कि उनका भोला भाला और कमजोर-सा दिखने वाला पट्टू मुरली (कार्तिक आर्यन) भले ही अखाड़े में किसी से लड़ा और ट्रेन नहीं हुआ है, लेकिन देख सबकुछ रहा है और चीजें सीख भी रहा है. ऐसे में उसने दूसरे गांव के दगड़ू को कुस्ती प्रतियोगिता में ऐसा पटका कि पूरा गांव उसकी जान के पीछे पड़ गया. यहीं से जो दौड़ मुरली ने लगाई तो वो आर्मी में पहुंच गया. उसको बचाने वाले दोस्त करनैल सिंह (भुवन अरोड़ा) ने उसका साथ दिया और उसे बताया कि मिल्खा सिंह और ध्यानचंद की तरह आर्मी में स्पोर्ट्स सीखकर वो भी ओलम्पिक तक जा सकता है. आर्मी में रहते हुए मुरलीकांत ने बॉक्सिंग सीखी और टोक्यो में हुए समर ओलम्पिक में हिस्सा भी लिया.
इसके बाद वो हुआ जो मुरलीकांत ने कभी नहीं सोचा था. 1965 की जंग में उनके शरीर में सिर से पैर तक 9 गोलियां लगी थीं. आर्मी अस्पताल में वो दो सालों तक कोमा में रहे. जब होश आया तो रीढ़ की हड्डी में गोली फंसी होने के कारण उनके शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था. शरीर के साथ न देने के बाद भी मुरली की किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. उनका ओलम्पिक का सपना भी तो पूरा करना था. 'रेगुलर ओलम्पिक' नहीं तो पैरालम्पिक ही सही. पैरालम्पिक में अपनी मेहनत और जीत से मुरलीकांत पेटकर ने साबित किया कि दिव्यांग लोग लाचार नहीं हैं. समाज उन्हें तरस खाने लायक ही समझता है, लेकिन वो भी समाज की सोच को तोड़कर कुछ बड़ा करने की ताकत रखते हैं. उनकी हिम्मत, उम्मीद और जज्बा किसी 'रेगुलर' इंसान जैसा ही तो होता है. लोगों की नजरें बस उन्हें 'रेगुलर' नहीं समझती.
कार्तिक आर्यन ने किया कमाल

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