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स्वदेश दीपक: एक बहुत बड़े विस्तार में निपट अकेला…

स्वदेश दीपक: एक बहुत बड़े विस्तार में निपट अकेला…

The Wire
Saturday, August 06, 2022 04:41:21 PM UTC

जन्मदिन विशेष: एक सर्जक के मन की पीड़ाएं उसकी सर्जना के लिए माध्यम बनती हैं पर स्वयं सर्जक भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते कि उनकी मानसिक व्याधियों से उनकी कला का वह रूप संभव हो सका है, या अशांत मन के विकारों ने उनकी कला को सीमित किया. स्वदेश दीपक भी अपने मन की प्रेत-छायाओं से लड़ते रहे और अंततः जब लड़ने से थक गए तो अपने आस-पास की दुनिया को छोड़कर एक सुबह चुपचाप कहीं चले गए.

स्वदेश दीपक की ‘मैंने मांडू नहीं देखा’ पढ़ने के बाद सहसा यह विश्वास नहीं होता कि सात साल (1991-1997) तक दुनिया से नहीं बल्कि स्वयं से भी आत्मनिर्वासित व्यक्तित्व इस प्रकार की रचना लिख सकता है. एक लेखक के रूप में अपनी खोई हुई शक्तियों को प्राप्त करने की प्रक्रिया और उस प्रक्रिया की सुखद परिणति -यह किताब- सर्जक व्यक्तित्व की वापसी का विरल उदाहरण है. ‘The only way I keep afloat is by working. Directly, I stop working, I feel that I am sinking down, down. And as usual I feel that if I sink further, I shall reach the truth.’    ‘मैं सात वर्ष तक एक मनोरोग से ग्रस्त रहा. इस रोग से जुड़ी लोगों की कल्पनाएं डरावनी और प्रतिक्रियाएं हिंसक, नफ़रत भरी होती हैं. परिचित और पराए दोनों डंक मारते हैं, हौसला नहीं देते. समाज में विक्षिप्त आदमी लांछन बन जाता है.’ ‘जून 2006 में मां ने फोन किया, ‘स्वदेश कल घूमने बाहर गए और अभी तक वापस नहीं आए हैं’. हमने एक और दिन इंतज़ार करने का फैसला किया. वह नहीं लौटे. कोई चिठ्ठी नहीं थी. उनकी घड़ी, बटुआ और टॉर्च का जोड़ा, जो वह हमेशा अपने पास रखते थे, उनके कमरे में था.’

स्वदेश दीपक (जन्म: 6 अगस्त 1942) ने वैसे तो ‘मायापोत’ और ‘नंबर 57 स्क्वाड्रन’ उपन्यास और ‘अश्वारोही’ जैसे कहानी संग्रह भी लिखे हैं, पर मुख्यतया हिन्दी साहित्य में वह अपने नाटकों के लिए जाने जाते हैं, जिनमें यथार्थ को देखने के लिए एक अलग नज़रिया, एक अलग ट्रीटमेंट उपयोग में लाया गया है. 1

980 के अंतिम वर्षों में स्वदेश के नाटकों ने हिन्दी के बेजान पड़ गए रंगमंच को एक नई ऊर्जा से आप्लावित किया. नाटक ‘कोर्ट मार्शल’ (1991) आधुनिक हिन्दी रंगमंच की दृष्टि से स्वदेश की सफलतम रचना है, जिसके हजारों प्रदर्शन देश-विदेश में हुए. सैन्य न्याय-व्यवस्था और भारतीय मानस में गहरे धंसे जातीय भेदभाव पर आधारित यह नाटक स्वदेश के ही नहीं बल्कि 20वीं शताब्दी के बेहतरीन नाटकों में भी एक है.

इसके अलावा ‘जलता हुआ रथ, काल कोठरी , सबसे उदास कविता’ स्वदेश की प्रमुख नाट्यकृतियां हैं. नाट्य विधा और रंगमंच में अपने अमूल्य योगदान के लिए वर्ष 2004 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

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