
राजद्रोह पर रोक सही है पर अदालतों को सरकारी दमन के ख़िलाफ़ खड़े होना चाहिए
The Wire
ऐसी संभावना है कि राजद्रोह का आसन्न अंत देश भर में पुलिस (और उनके आकाओं) को आलोचकों को डराने और पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व विपक्षी नेताओं को चुप कराने के तरीके के रूप में अन्य क़ानूनों के उपयोग को बढ़ा देगा.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारत के राजद्रोह कानून- भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए- की कार्यवाहियों पर केंद्र सरकार द्वारा इस प्रावधान की अपनी प्रस्तावित समीक्षा को पूरा करने तक रोक का आदेश देने से एक दिन पहले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता अदालत में थे और यहां उन्होंने अपना पेटेंट झूठ बताया.
लाइव लॉ के मुताबिक, मेहता ने कहा, ‘[राजद्रोह के मामलों में] एफआईआर और जांच राज्य सरकारों द्वारा की जाती है. केंद्र ऐसा नहीं करता है.’
मेहता ने जिस बात को आसानी से नज़रअंदाज कर दिया, वह यह थी कि दिल्ली पुलिस- जो सीधे उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रित होती है, गृह मंत्री अमित शाह के साम्राज्य का हिस्सा है- ने पिछले साल ही कई पत्रकारों (मृणाल पांडे, राजदीप सरदेसाई, जफर आगा, विनोद जोस, अनंत नाथ) के साथ ही कांग्रेस नेता शशि थरूर के खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाया था, उनका दोष था कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह दावा किया था कि दिल्ली में 26 जनवरी, 2021 को किसानों के एक विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए किसान को गोली मारी गई थी.
देश भर में दर्ज किए गए अधिकांश राजद्रोह के मामले समान रूप से हास्यास्पद हैं. मेहता ने मुंबई में राणा दंपति के खिलाफ दर्ज राजद्रोह के बेतुके आरोप का उल्लेख किया, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस तरह की हास्यास्पदता की बयार महाराष्ट्र से मणिपुर तक देखी गई है, अधिकतर उस पार्टी के कहने पर जिसकी सरकार की सेवा में मेहता काम करते हैं.
