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रघुवीर सहाय: कुछ न कुछ होगा, अगर मैं बोलूंगा…

रघुवीर सहाय: कुछ न कुछ होगा, अगर मैं बोलूंगा…

The Wire
Friday, December 09, 2022 07:38:11 AM UTC

जन्मदिन विशेष: रघुवीर सहाय की कविता राजनीतिक स्वर लिए हुए वहां जाती है, जहां वे स्वतंत्रता के स्वप्नों के रोज़ टूटते जाने का दंश दिखलाते हैं. पर लोकतंत्र में आस्था रखने वाला कवि यह मानता है कि सरकार जैसी भी हो, अकेला कारगर साधन भीड़ के हाथ में है.

हिंदी कविता के मुक्त आकाश में हर विचारधारा और हर विषयवस्तु ने खुलकर अपना रूप प्राप्त किया है. इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि कभी छायावाद की-सी अतिशय भावुकता से भरी पीढ़ी कविताओं के माध्यम से अपना मन खोल सकी तो वहीं मार्क्सवादी सामाजिकता से डूबी हुई कविताएं प्रगतिशील साहित्य के नाम पर अपना मुक़ाम पा सकीं. ‘विचारवस्तु का कविता में खून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों.’ ‘इस स्थिति में सबसे आसान यह पड़ता है कि व्यक्ति-स्वातंत्र्य की अभी तक बची सुविधा का फ़ायदा उठाकर मैं, अपने लिए बचे रहने की निजी, बिल्कुल अहस्तांतरीय रियायत ले लूं. उससे कुछ मुश्किल यह है कि मैं यह रियायत अस्वीकार करूं और उनके आसरे जिंदा रहूं जो इंसान के लिए दूसरे हथियारों से लड़ते हैं- साहित्येतर हथियारों से.

इन सबके बाद एक वर्ग वह भी आया जिसने कविता को एक प्रयोग मानकर पुराने सभी बासी पड़ गए उपमानों को खारिज करने का घोष किया तो वहीं नेहरू युग के साथ-साथ विकसित हुई नई कविता ने लघुमानव को साहित्य का सूत्रधार बनाया. सबसे मुश्किल और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं में लड़ूं -किसी में ढाल सहित, किसी में निष्कवच होकर-मगर अपने को अंत में मरने सिर्फ अपने मोर्चे पर दूं-अपनी भाषा के, शिल्प के और उस दोतरफ़ा ज़िम्मेदारी के मोर्चे पर जिसे साहित्य कहते हैं.’

हिंदी कविता के इस आधुनिक विकास यात्रा में कवि रघुवीर सहाय को अगर ढूंढना हुआ तो हम पाएंगे कि वह, जैसा कि आलोचक परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं  ‘प्रयोगवाद और नई कविता की संधि’ पर कहीं खड़े हैं और बड़ी मजबूती से खड़े हैं. यह संधि राजनीतिक फलक पर साठ के दशक के उत्तरार्ध में- यानी नेहरू युग की समाप्ति और लोहिया की मृत्यु पर- देखी जा सकती है .

सहाय उस पीढ़ी के प्रतिनिधि कवि हैं जिन्होंने राष्ट्र निर्माण के स्वप्नों को चुकते देखा था. ‘दिल्ली मेरा परदेस’ की भूमिका में 1957-67 के पूरे दौर को वे ‘एक विश्वास के बार-बार झकझोरे जाने का दौर’ बताते हैं- जो कि वह दौर है जो 1947 से 1957, माने स्वतंत्रता के शुरुआती दस वर्षों, जो सहाय के शब्दों में राष्ट्रनिर्माण के उत्साह का वर्ष थे, का उत्तराधिकारी था.

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