मध्य प्रदेश: क्या शिवराज सरकार के पेसा क़ानून लागू करने की वजह आदिवासी हित नहीं चुनावी है?
The Wire
मध्य प्रदेश सरकार बीते दिनों पेसा क़ानून लागू करने के बाद से इसे अपनी उपलब्धि बता रही है. 1996 में संसद से पारित इस क़ानून के लिए ज़रूरी नियम बनाने में राज्य सरकार ने 26 साल का समय लिया. आदिवासी नेताओं का कहना है कि शिवराज सरकार के इस क़दम के पीछे आदिवासियों की चिंता नहीं बल्कि समुदाय को अपने वोट बैंक में लाना है.
भोपाल: बीते 15 नवंबर को मध्य प्रदेश सरकार ने आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर आदिवासियों को अधिकार संपन्न बनाने वाला पेसा (पंचायत, अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार क़ानून, 1996) क़ानून लागू कर दिया. गौरतलब है कि इस दिन को राज्य सरकार ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाती है.
वर्ष 1996 में संसद से पारित यह क़ानून संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को अधिकार संपन्न बनाकर प्रशासन का अधिकार देता है, जिससे स्थानीय जनजातियों के जल, जंगल और ज़मीन पर अधिकार व संस्कृति का संरक्षण सुनिश्चित किया जा सके. साथ ही, यह क़ानून विवादों के समाधान भी परंपरागत तरीकों से ग्राम सभाओं के स्तर पर निपटाने की बात करता है और ग्राम पंचायतों को बाजारों के प्रबंधन की शक्ति भी प्रदान करता है. आदिवासी या जनजातीय समुदायों को साहूकारी प्रथा से मुक्ति जैसे प्रावधान भी इसमें हैं.
शराब/भांग विक्रय एवं प्रतिषेध, श्रम रोजगार, सामाजिक क्षेत्र की संस्थाओं पर नियंत्रण, सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन एवं निरीक्षण आदि संबंधी शक्तियां ग्राम सभाओं को प्रदान कर यह क़ानून आदिवासियों द्वारा अपने क्षेत्रों में स्वशासन की अवधारणा को साकार करता है.
यूं तो यह क़ानून 1996 में ही संसद से पारित हो गया था, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार ने राज्य में इसे लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाने में 26 साल का समय लगा दिया.