
नया वर्ष हमारे लिए वैचारिक धुंध से शुरू हुआ है
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नया वर्ष इस संदेह से शुरू हुआ कि शायद हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें नए विचार होना बंद हो गया है. लोकतंत्र के रूप में हमारी नियति अब भीषण संदेह के घेरे में है. राजनीति नागरिकों के बस में नहीं रही है- उनकी नागरिकता सिर्फ़ मतदान में बदल चुकी है.
दिसंबर का आखिरी सप्ताह ग़ालिब की पुण्यतिथि का भी सप्ताह है. पर वही एक कारण नहीं है, ग़ालिब के यहां एक बार फिर जाने का. मैं दो कवियों के यहां बार-बार जाता हूं रिल्के और ग़ालिब. फ़ैज़ का एक मिसरा उधार लेकर कहा सकता हूं: ‘आस उस दर से टूटती ही नहीं.’
कुछ महीने पहले मुझे ‘गांधी की मौजूदगी’ पर एक व्याख्यान देना था तो मैंने शुरू में ही ग़ालिब के चार शेर उद्धृत करते हुए यह आग्रह किया कि उन शेरों की पहली पंक्तियां भूल जाए, दूसरी पंक्तियां याद रखें. इस प्रक्रिया को इधर मैंने आगे बढ़ाया तो पाया कि बारहा उनके यहां पहली पंक्ति फ़ारसी में लगभग तत्सम होती है और दूसरी उर्दू में. दो उदाहरण देखिए:
ऐ परतवे-खुर्शीदे-जहां ताब इधर भी साये की तरह हम पे अजब वक़्त पड़ा है.
जौहरे-तेग़-बचश्मए-दीगर-मालूम हूं मैं वो सब्ज़, कि ज़हराब उगाता है मुझे