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जिस विविधता पर ब्रिटेन को नाज़ है, उससे भारत को क्यों ऐतराज़ है

जिस विविधता पर ब्रिटेन को नाज़ है, उससे भारत को क्यों ऐतराज़ है

The Wire
Sunday, October 30, 2022 09:55:30 AM UTC

ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर भारतीयों को ख़ुश होने की जगह वास्तव में गंभीरता के साथ आत्ममंथन करना चाहिए कि हज़ारों सालों से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रही हमारी धार्मिक विविधता और सांस्कृतिक बहुलता का क्या हुआ.

1979 से 1986 तक मैं लंदन में रहा- किसी प्रवासी की तरह नहीं, बल्कि एक छात्र की तरह- लेकिन उस दौरान मैंने ब्रिटिश जीवन को इतना देख लिया था कि आज उसे छोड़ आने के 36 सालों बाद वह देश कितना आगे बढ़ा है, इसे ठीक से समझ पाता हूं. Thirty years ago today Paul Boateng, Keith Vaz, the late great Bernie Grant & myself elected to the British parliament #stillstanding pic.twitter.com/tEEZWD0MCN ‘ब्रिटेन ने एक ईसाई औपनिवेशिक साम्राज्य चलाया फिर भी आज वही ब्रिटेन सुनक को शीर्ष पद के लिए प्रतिस्पर्धा करने की इजाजत दे रहा है. ब्रिटेन के किसी विपक्षी नेता और यहां तक कि उनकी ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदारों ने उनके धर्म को लेकर सवाल नहीं उठाया है. उनके धन को लेकर, हां. कामगार वर्ग के प्रति उनके रवैये को लकर, हां. और उनकी पत्नी द्वारा करचोरी को लेकर, हां. किसी लोकतंत्र के लिए ये सारे काफी अच्छे सवाल हैं. (यह अलग बात है कि भारत में ये सवाल शायद ही कभी पूछे जाते हैं)’

मेरी उम्र 14 साल थी, जब मेरे पिता लंदन में पोस्टेड थे और जब मैं न्यूयॉर्क गया, तब मेरी उम्र 21 साल थी. उन सात सालों में मैंने साउथ लंदन के वर्किंग क्लास इलाके के एक कॉम्प्रिहेंसिव स्कूल से अपना ओ और ए लेवल पूरा किया और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (एलएसई) में पढ़ने गया. इस पूरे दौरान मार्गेट थैचर इंग्लैंड की प्रधानमंत्री थीं. नेशनल फ्रंट और ब्रिटिश नेशनल पार्टी के फासीवादी गुंडों द्वारा नस्लवादी हिंसा की घटनाएं काफी आम थीं और पुलिस का नस्लवादी रवैया- खासकर काले समुदाय के युवाओं के प्रति- जिंदगी की एक हकीकत थी. — Diane Abbott MP (@HackneyAbbott) June 11, 2017

मैंने कभी किसी प्रकार की शारीरिक हिंसा का सामना नहीं किया न ही ज्यादा नस्लवादी फब्तियों का मुझे सामना करना पड़ा. स्कूल में मेरे पहले या दूसरे हफ्ते में लंच ब्रेक के दौरान फुटबॉल खेलते हुए मेरे पाले का एक ब्रिटिश बच्चा मुझ पर चिल्लाया, ‘पास द बॉल,स्टैन! (बॉल पास करो, स्टैन). खेल खत्म होने पर मैंने उससे कहा कि मेरा नाम स्टैन नहीं है. उसके जवाब पर मैं ठहाका लगाए बगैर नहीं रह पाया, उसने कहा था, ‘मेरा मतलब पाकिस्टैन के स्टैन से था.’ मुझे याद आता है, उसके जवाब में अपमान का ज़रा-सा भी भाव नहीं था- उसने ‘पाकि’ वाले हिस्से पर जोर नहीं दिया था. उसने और उसके दोस्तों ने मेरा नाम पूछा और कहा, अगर वे मुझे ‘सिड’ कहकर पुकारें, तो मुझे कोई ऐतराज तो नहीं!

उस दिन से मुझे कभी भी (उस गोरों से भरे) स्कूल में कोई दिक्कत नहीं हुई. लेकिन यह स्पष्ट था कि ब्रिटिश समाज को नस्लवाद से समस्या थी, जिसे जनसांख्यिकीय भय दिखाकर और ब्रिटेन के अप्रवासियों और उनके वंशजों की देशभक्ति/वफादारी पर लेकर निराधार सवाल उठाकर द्वारा (दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञों द्वारा) ज्यादा ही तूल दिया गया था.

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