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गंगूबाई काठियावाड़ी के बहाने: मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी, यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी…

गंगूबाई काठियावाड़ी के बहाने: मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी, यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी…

The Wire
Monday, March 21, 2022 05:00:01 PM UTC

गंगूबाई फिल्म एक सिनेमेटिक अनुभव की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, पर इस फिल्म के योगदान को जिस चीज़ के लिए माना जाना चाहिए वह है- वेश्याओं के छुपे हुए संसार को अंधेरे गर्त से निकाल कर सतह पर लाना.

हाल ही में आई फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी ने भारतीय संदर्भों में वेश्यावृत्ति या सेक्स-वर्क से जुड़ी महिलाओं के त्रासद संसार के चित्रण से हमारी मध्यवर्गीय मानसिकता को झकझोर कर रख दिया है. जिस तरीके से आलिया भट्ट परदे पर गंगूबाई काठियावाड़ी का किरदार निभाती हैं, जिस तरह से निर्देशक संजय लीला भंसाली परदे पर 1960 के मुंबई की उन ‘बदनाम’ गलियों को जीवंत कर देते हैं, वह आम दर्शक को किसी इंद्रजाल में उतार देता है… दृश्य-दर-दृश्य, घंटे-दर-घंटे, दर्शक इस कड़वी यथार्थ की दुनिया में उतरता जाता है. ‘The use of the term ‘sex work’ is a linguistic homogenization, that does not do justice to the individuality of different practices of prostitution that have come to survive in India today.’ ‘People from high castes and rich families sent their sons to tawayifs or courtesans so that they could learn etiquette’. (पेज:58, नोबडी कैन लव यू मोर- लाइफ इन डेल्हीज़ रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट) गंगूबाई से जुड़ी कई घटनाओं को कहीं लिखा नहीं गया है और न ही इसकी प्रामाणिकता की पुष्टि करने के लिए कोई मौजूदा प्रमाण भी हैं. इन घटनाओं की विश्वसनीयता केवल मौखिक साक्ष्य से ही तौली जा सकती है, इन घटनाओं के साक्ष्य की पुष्टि सिर्फ लोगों की ज़बानी ही समझी जा सकती है, जो पिछले चार दशकों से इस पूरे समुदाय में पीढ़ी-दर-पीढ़ी कहानियों की भांति सुनाई जाती रहीं हैं. ‘हर दीवाली पर गंगूबाई 200 साड़ियां मंगवाया करती थीं. इनमें से 150 साड़ियां अपने कोठे की लड़कियों के लिए और बाकी उन सभी वेश्याओं के लिए जिन्हें वह जानती थीं, पर जो अब किसी और जगह काम करने चली गई थीं. शायद ही वह किसी को भूलती थीं. वह मां से बढ़कर थीं. कमाठीपुरा की इन 14 गलियों में जहां भगवान नहीं थे, उनके लिए गंगूबाई वह दैवीय शक्ति थी जो यहां की जिंदगियों और तक़दीरों को बनाती थी.’ ‘Even though Rehmat Khan Lala and Babu Raw were the two mafia dons who fought fierce battles over Kamathipura, it was Gangu Bai who reigned supreme over its fourteen streets……if she ever visited the police station, senior officers would rise from their seats as if the home secretary had arrived.’ (पेज-57, केजेस: लव एंड वैंजेयेंस इन अ रेड लाइट डिस्ट्रिक्ट) मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी पयम्बर की उम्मत , जुलेखां की बेटी जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं? कहां है? कहां है? कहां है?

यूं लगता है हम परदे पर कुछ ऐसा देख रहे हैं, जो हमारा अपना अनुभव नहीं है, पर जिस सच्चाई से भंसाली यह संसार रचते हैं, वह हमारी संवेदनाओं में हमेशा के लिए अंकित हो जाता है. यानी ‘सेक्स वर्क’ शब्द का इस्तेमाल एक भाषाई समरूपीकरण है, जो आज भारत में आजीविका के लिए प्रचलन में आने वाली वेश्यावृत्ति की विभिन्न तरीकों के साथ न्याय नहीं करता. (उच्च जातियों और धनाढ्य परिवारों के लोग अपने बेटों को तवायफ़ों के पास भेजते थे, ताकि वे तहज़ीब और शऊर सीख सकें. ) भले ही माफिया डॉन रहमत खान लाला और बाबू राव ने कमाठीपुरा को लेकर बड़ी लड़ाइयां लड़ी थीं, लेकिन यह गंगूबाई ही थीं जिन्होंने इसकी चौदह सड़कों पर राज किया… अगर कभी वो थाने पहुंच जाती थीं, बड़े अधिकारी अपनी सीट छोड़कर यूं खड़े हो जाते थे मानो गृह सचिव आए हों.

पश्चिमी काव्यशास्त्र में नाटकों का मुख्य उद्देश्य दर्शकों को विरेचन की स्थिति में ले आना माना जाता है. मसलन, शेक्सपियर के नाटकों में नायक की त्रुटियों के बावजूद दर्शकों की सहानुभूति उसी के साथ होती थी. प्रेक्षागृह में बैठे दर्शक कुछ समय के लिए नायक के साथ जिस तन्मयता के सूत्र से बंधते थे, वह उन्हें मानसिक विस्मृति की अवस्था में ले कर चला जाता था.

भारतीय काव्यशास्त्र में भी ‘भरत मुनि’ काव्य से प्राप्त होने वाले आनंद को ‘ब्रह्मानन्द’ कहते हैं. नाट्यकलाओं में दर्शक के साधारणीकरण करने की वह क्षमता होती है जो उन्हें आनंद की ऐसी चरम सीमा पर ले जाता है, जहां दर्शक, अभिनेता के हर भाव से तादात्म्य स्थापित कर लेता है.  फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी को देखने के बाद लगभग यही मनोदशा होती है.

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