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क्या ज़ुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जाएंगे…

क्या ज़ुल्मतों के दौर में भी गीत गाए जाएंगे…

The Wire
Sunday, May 29, 2022 09:46:10 AM UTC

इप्टा ने आज़ादी के 75वें वर्ष के अवसर पर 'ढाई आखर प्रेम के' शीर्षक की सांस्कृतिक यात्रा का आयोजन किया था. इसके समापन आयोजन में लेखक, अभिनेता व निर्देशक सुधन्वा देशपांडे द्वारा 'नाटक में प्रतिरोध की धारा' विषय पर दिया गया संबोधन. 

(इप्टा ने आज़ादी के 75वें वर्ष के अवसर पर ‘ढाई आखर प्रेम के’ शीर्षक की सांस्कृतिक यात्रा का आयोजन किया था. 9 अप्रैल 2022 को रायपुर से शुरू हुई यह यात्रा छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश से होती हुई मध्य प्रदेश में 22 मई को समाप्त हुई. यात्रा में नाटक, गीत, संगीत आदि के माध्यम से इंसानियत, प्रेम और सौहार्द्र की बातें की गईं जो हमारे आज़ादी के संघर्ष की विरासत भी है. समापन आयोजन में लेखक, अभिनेता व निर्देशक सुधन्वा देशपांडे बतौर मुख्य अतिथि इंदौर पहुंचे थे और उन्होंने ‘नाटक में प्रतिरोध की धारा’ विषय पर संबोधन दिया था. उनके संबोधन को लेख का रूप दिया गया है.) ‘अकाल का स्याह साया पूरे बंगाल पर पड़ा, ख़ासतौर से कलकत्ता शहर पर. ख़ुद को बंद दरवाज़ों के पीछे महफूज़ रखना मुमकिन ही नहीं था. ड्रामों की रिहर्सल और उन पर बहसें छोड़कर हम सड़कों पर उतर आए. जहां देखो, एक ही नज़ारा था- हज़ारों, लाखों कंकाल ‘फ़्यान दाओ, फ़्यान दाओ’ (मांड दो, मांड दो) चीखते हुए रो रहे थे. पेट में भूख की मरोड़ें लिए, किसान और उनकी जगधात्री-सी औरतें शहर तो आ गए, पर उनमें पका हुआ भात मांगने की हिम्मत न थी. वे सिर्फ़ भात का पानी- सिर्फ़ मांड- मांगते थे. ये इंसानियत के गाल पर तमाचा था.

जन नाट्य मंच (जनम, दिल्ली) और इप्टा का रिश्ता बहुत पुराना है- बल्कि जनम का जनम ही इप्टा की देन है. ये सांस्कृतिक यात्रा बेहद प्रेरणादायी रही है- हम सभी के लिए- क्योंकि इसके ज़रिये आपने साबित किया है की इस अंधेरे के दौर में प्रेम की शमा को संजोना मुमकिन है. इस यात्रा में आपने जगह-जगह हमारे स्वाधीनता संग्राम के नायकों को याद किया, और जिस धरती पर उन्होंने शहादत दी उसे इकट्ठा किया है, और इसके ज़रिये एक पूरी नई पीढ़ी को हमारे इतिहास से वाक़िफ़ कराया. एक दिन सड़क के किनारे मैंने एक औरत की लाश देखी. उसका मासूम भूखा बच्चा उसकी छाती को चूसता, हिचकोले खाता रो रहा था. इस मंज़र ने मेरे पूरे ज़हन को झकझोर दिया. मैं चिल्लाया, ‘नहीं, नहीं, नहीं!’ लड़खड़ाता, मैं भागा, और अपने आप से कहता रहा, ‘नहीं, हम यूं लोगों को मरने नहीं देंगे, हम आवाज़ उठाएंगे.’ बस वही शुरुआत थी. मुझे याद नहीं मैं किसके घर गया, कहां से हारमोनियम लिया, किससे काग़ज़ और क़लम मांगी. ‘नॉबो जीबोनेर गान’ की रचना यूं ही शुरू हुई थी.’

मुझे कोई शक़ नहीं की ये यात्रा सिर्फ इतिहास को याद नहीं करती, बल्कि ख़ुद एक ऐतिहासिक यात्रा साबित होगी. इप्टा के सभी साथियों को जनम का सलाम पेश करने मैं आज यहां आया हूं. मुझे ‘प्रतिरोध की धारा का नाटक’ मौज़ू पर बोलने के लिए कहा गया है. लेकिन मैं कोई बुद्धिजीवी नहीं हूं. मैं नाटक करता हूं. खुले में, बस्तियों और पार्कों में, नुक्कड़ और चौराहों पर, स्कूलों और कॉलेजों में, फैक्ट्रियों के गेट पर, गांवों और खलिहानों में. मुझे भाषण देना नहीं आता.

वैसे भी मेरे उस्ताद हबीब तनवीर कहा करते थे कि किसी को बोरियत से मारना हो तो उसे नसीहत दो, और उसके ज़हन पर असर डालना हो तो उसे कहानी सुनाओ. तो चलिए, आज मैं आपको कुछ कहानियां सुनाता हूं.

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