कश्मीर के महाराजा क्यों भारत में विलय के लिए नहीं थे तैयार
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26 अक्टूबर 1947 वो दिन है, जब जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने मजबूरी में भारत के साथ विलय करने संबंधी 02 पेज के विलय पत्र पर साइन किए थे. इसके बाद इस राज्य का विलय भारत में हो गया. अक्सर ये सवाल उठता है कि जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने भारत के साथ विलय पर फैसला लेने में इतनी देर क्यों की. वो आखिर क्यों भारत के साथ अपने राज्य को मिलाना नहीं चाहते थे.
क्लीमेंट एटली के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने और भारत में कैबिनेट मिशन की गतिविधियों के बाद ये बहुत साफ था कि भारत की आजादी और बंटवारा दोनों तय है. ऐसा होगा ही होगा. तब भारत और पाकिस्तान को मिला दें तो 600 के ऊपर रजवाड़े थे.इन रजवाड़ों के सामने ब्रिटिश सरकार ने दो विकल्प रखे कि या तो अपनी रियासत का विलय भारत या पाकिस्तान में किसी एक साथ कर लें या फिर स्वतंत्र अस्तित्व रखें. रजवाड़ों से ये भी कहा गया कि ऐसा करते समय अपनी भौगोलिक स्थिति और जनता के मन को जरूर देखें.
जम्मू कश्मीर में उस समय महाराजा हरि सिंह शासक थे और उनके मंत्री थे रामचंद्र काक. हालांकि जब ब्रिटिश राज ने भारतीय रजवाड़ों को ये विकल्प दिया तो ये भी साफ कर दिया कि उनका स्वतंत्र रह पाना मुश्किल होगा. ब्रिटिश इंडिया के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी रजवाड़ों को यह साफ़ कर दियाा था कि स्वतंत्र होने का विकल्प उनके पास नहीं था. वे भौगोलिक सच्चाई की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे. वे भारत या पाकिस्तान, चारों ओर से जिससे घिरे थे, उसमें ही शामिल हो सकते थे.
महाराजा का सपना था कश्मीर को आजाद और अलग रखना महाराजा हरि सिंह अपने राज्य को ना तो भारत में मिलाना चाहते थे और ना ही पाकिस्तान में. उनके दिमाग में ये खयाल था कि वो भारत और पाकिस्तान के बीच आजाद मुल्क की हैसियत से रहेंगे. वो जम्मू-कश्मीर को स्विटजरलैंड की तरह खूबसूरत देश बनाना चाहते थे. हालांकि किसी के साथ नहीं जाने की कई वजहें और भी थीं. जिसे करण सिंह ने अपनी जीवनी “हेयर एप्रेंट” में लिखा- “उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में चार प्रमुख ताकतें थीं और मेरे पिता के संबंध सभी से शत्रुतापूर्ण थे. कांग्रेस से उनके संबंध बिल्कुल खराब थे, क्योंकि नेहरू की करीबी उनके विरोधी शेख अब्दुल्ला से थी. जिन्ना को वो पसंद नहीं करते थे. मुस्लिम लीग के आक्रामक मुस्लिम सांप्रदायिक रुख को वो कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. इसलिए उन्होंने पाकिस्तान के ललचाने वाले प्रस्तावों को ठुकरा दिया. नेशनल कांफ्रेंस और उसके नेता शेख अब्दुल्ला से उनके रिश्ते दशकों से शत्रुतापूर्ण थे.”