
आलोचना की अनुपस्थिति
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लोकतंत्र में आलोचना, वाद-विवाद और प्रश्नवाचकता की जगहें सिकुड़ जाएं तो ऐसे लोकतंत्र को पूरी तरह से लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता.
यह ज़ाहिर सी एक बात है कि साहित्य और कलाओं में हर पीढ़ी अपने आलोचक भी पैदा करती है जो उसकी चिंताओं, सरोकारों और दृष्टियों को सहानुभूति-संवेदना-समझ से खोजते और व्यक्त करते हैं. यही आलोचना आस्वाद-समझ-परख के लिए नई अवधारणाएं, पदावली और युक्तियां विन्यस्त करती हैं. लेकिन दूसरी ओर, यह भी सही है कि ऐसा हर पीढ़ी में हो यह ज़रूरी नहीं है.
यह भी हो ही सकता है कि कोई पीढ़ी अपनी रचना में ही आलोचना को ऐसे अंतर्भुक्त कर ले कि उसे किसी स्वतंत्र आलोचना की दरकार ही न रह जाए!
ऐसा लगता है कि वर्तमान युवा पीढ़ी, कुल मिलाकर, ऐसी ही पीढ़ी है जिसे तुरंत आस्वादन और प्रशंसा के ऐसे साधन और सुविधाएं नई संचार-व्यवस्था ने सुलभ करा दिए हैं कि उसे आलोचना में संभव जांच-परख और खोज की कोई ज़रूर ही नहीं रह गई है. उसका अधिकांश स्वयं किसी तरह की आलोचना से, ख़ासकर आज की आक्रांतिकारी व्यवस्था को लेकर करने से या तो बचता है या संकोच करता है, किसी भय के कारण.
उसकी साहसिकता और बेबाकी में जो नवाचार के प्रति लापरवाही छिपी है इसे बताने वाला भी कोई नहीं है. उसमें लगातार बढ़ती स्मृतिहीनता भी कैसे वर्तमान सत्ता के प्रयत्न के अनुकूल है यह बताने वाली आलोचना कहीं नहीं है और दुर्भाग्य से, युवा ऐसी आलोचना चाहते भी नहीं हैं.
